गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

 मोदी सरकार के दौर में तीन गुना हुआ सेंसेक्सऐसा रहा 25 हजार से 75 हजार का सफर


दिनेश अग्रहरि


भारतीय शेयर बाजार ने 10 अप्रैल 2024 को एक नई चोटी फतह की। बीएसई सेंसेक्स (BSE Sensex) पहली बार 75 हजार के पार बंद हुआ। साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब राजग की सरकार बनी थी तो इसे लेकर कारोबारी काफी बुलिश थे और तब सेंसेक्स 25 हजार तक पहुंचा था। आज पिछले दस साल में मोदी सरकार के शासन के दौरान सेंसेक्स ने 25 हजार से 75 हजार की यात्रा पूरी कर ली है।

बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (जिसे अब BSE लिमिटेड कहा जाता हैकी स्थापना 1875 में ही हो गई थी। यह एशिया का सबसे पुराना स्टॉक एक्सचेंज है। हालांकि 30 दिग्गज शेयरों वाले बीएसई के सूचकांक सेंसेक्स की शुरुआत जनवरी 1986 को हुई। इसका बेस ईयर 1978-79 को माना गया और अप्रैल 1979 के आधार पर इसकी बेस वैल्यू 100 मानी गई। सेंसेक्स नाम असल में सेंसेटिव इंडेक्स का शॉर्ट फॉर्म है। इस तरह सेंसेक्स को अपने 100 से 25 हजार के आंकड़े तक पहुंचने में करीब तीन दशक लग गएलेकिन इसने अगले एक दशक में ही 25 हजार से 75 हजार तक का रास्ता तय कर लिया।

मोदी सरकार की शुरुआत और सेंसेक्स

साल 2014 में मोदी सरकार बनने से पहले के आंकड़ों को देखें तो 18 जनवरी 2013 को सेंसेक्स 20 हजार के अहम बिंदु के पार बंद हुआ थालेकिन इसके 20 से 25 हजार तक पहुंचने में सिर्फ डेढ़ साल लगे। साल 2014 के मई महीने में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी। एक स्थायी सरकार बनने को लेकर शेयर बाजार में अच्छा सेंटिमेंट देखा गया। इसके बाद 16 मई 2014 को ही सेंसेक्स 25,364 के स्तर तक पहुंच गया थाहालांकि यह बंद 25 हजार से नीचे हुआ। जून 2014 को सेंसेक्स 25,019.51 पर बंद हुआ।

25 हजार से 40 हजार का सफर

इसके बाद सेंसेक्स को 25 से 30 हजार तक पहुंचने में करीब तीन साल लग गए। साल 2017 के अप्रैल महीने की 26 तारीख को सेंसेक्स 30,133.35 पर बंद हुआलेकिन इसके अगले एक साल में ही सेंसेक्स 35 हजार के लेवल पर पहुंच गया। 17 जनवरी 2018 को सेंसेक्स 35,081.82 पर बंद हुआ। इसके बाद सेंसेक्स को 40 हजार के स्तर तक पहुंचने में अगले करीब 22 महीने लग गए। 30 अक्टूबर 2019 को सेंसेक्स 40,051.87 के स्तर पर पहुंच गया।

कोरोना संकट का दौर
साल 2020 में कोरोना का भयावह दौर आ गया। इसकी वजह से जनवरी 2020 में 42 हजार के करीब पहुंचा सेंसेक्स मार्च 2020 में लॉकडाउन के बाद धराशायी होकर 25981.24 तक पहुंच गया। हालांकि कोरोना संकट में लोगों का घर बैठना शेयर बाजार के लिए वरदान साबित हुआ। जब कोई कारोबार नहीं चल रहा थानिवेश के साधन नहीं थेतब शेयर बाजार ही लोगों के लिए एक नई उम्मीद बना जिसमें कारोबार घर बैठे किया जा सकता था। बड़ी संख्या में नए डीमैट खाते खुले और खासकर युवामहिला निवेशक शेयर बाजार में हाथ आजमाने लगे। विदेशी निवेशकों को भी भारत के शेयर बाजार में पैसा लगाना आकर्षक लगने लगा। अप्रैल 2020 के अंत से फिर सेंसेक्स में तेजी आने लगी। इसकी वजह से सेंसेक्स को 40 से 50 हजार के आंकड़े तक पहुंचने में सिर्फ 15 महीने लगे।

30 अक्टूबर 2019 को सेंसेक्स पहली बार 40 हजार के पार बंद हुआ था। लेकिन विदेशी निवेश प्रवाह और घरेलू निवेशकों के दम पर सेंसेक्स करीब एक साल में ही 40 से 45 हजार तक पहुंच गया. 4 दिसंबर, 2020 को सेंसेक्स 45079.55 पर बंद हुआ। इसके बाद करीब डेढ़ महीने में ही 21 जनवरी 2021 को सेंसेक्स 50 हजार के पार पहुंच गया।

50 से 60 हजार की तेज यात्रा

सेंसेक्स को 50 हजार से 60 हजार के आंकड़े तक पहुंचने में सिर्फ महीने लगे। 21 जनवरी 2021 को सेंसेक्स 50 हजार के पार पहुंचा थाहालांकि इस आंकड़े के पार यह 50,255.75 पर बंद फरवरी 2021 को हुआ। इसके बाद सेंसेक्स ने 24 सितंबर 2021 को 60 हजार का आंकड़ा पार किया और 60,048.47 पर बंद हुआ।

60 हजार से 75 हजार की ऐसी रही यात्रा

इसके बाद सेंसेक्स की चाल थोड़ी सुस्त रही। इसकी वजह थी पिछले दो साल में तमाम अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम जिनका दुनिया भर के बाजारों पर गहरा असर पड़ा। रूस-यूक्रेन जंग जैसे भू-राजनीतिक हालातकई देशों में आर्थिक सुस्ती आदि वजहों से भारतीय बाजार में भी काफी उतार—चढ़ाव रहे। बीएसई सेंसेक्स को 60 हजार से 75 हजार तक पहुंचने में करीब ढाई साल लग गए।

तीन जुलाई 2023 को सेंसेक्स ने 65 हजार के आंकड़े को पार किया और इस दिन 65,205.05 पर बंद हुआलेकिन अगले छह महीने में ही इसने 70 हजार का आंकड़ा पार कर लिया। सेंसेक्स 11 दिसंबर 2023 को कारोबार के दौरान 70 हजार के पार जरूर हुआलेकिन इस दिन अंत तक इस पर टिका नहीं रह पाया। इसके बाद 14 दिसंबर को पहली बार सेंसेक्स 70 हजार के पार 70,514.20 पर बंद हुआ।

इसके बाद अगले चार महीने में ही अब सेंसेक्स ने 75 हजार का आंकड़ा पार कर लिया है। मंगलवार अप्रैल 2024 को ही यह कारोबार के दौरान यह 75,124.28 के उच्च स्तर तक पहुंच गया थालेकिन अंत में काफी टूट गया और 74,683.70 पर बंद हुआ। इसके बाद यह बुधवार 10 अप्रैल को कारोबार के दौरान 75,105.14 की ऊंचाई तक पहुंचा और कारोबार के अंत में यह करीब 354 अंकों की तेजी के साथ 75,038.15 पर बंद हुआ। इस तरह मोदी राज के दौरान सेंसेक्स में करीब तीन गुना की बढ़त हो चुकी है।


मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

मेरे संसदीय क्षेत्र में ताजी हवा का झोंका आया है

मेरे जन्मभूमि वाले संसदीय क्षेत्र महाराजगंज, यूपी की राजनीति में ताजी हवा का झोंका आया है. इस बार दो ऐसी महिला प्रत्याशी आई हैं जिनसे मुझे इस बेहद पिछड़े संसदीय क्षेत्र के लिए कुछ उम्मीद की किरण नजर आती है. दोनों अपने पिता के राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने जा रही हैं. एक लखनऊ दिल्ली में पढ़ी, विदेश में रह चुकीं और एक बिजनेस चैनल की संपादक रहीं सुप्रिया श्रीनेत हैं, तो दूसरी इलाके के दबंग माने जाने वाले नेता अमर मणि त्रिपाठी की बेटी तनुश्री त्रिपाठी जो लंदन के एक प्रतिष्ठित काॅलेज से पढ़कर आई हैं.
 अपने कस्बे के युवा दोस्तों के साथ अक्सर जब हम राजनीतिक चर्चा करते तो यह बात सामने आती कि कोई बड़ा नेता या बेहतर कैंडिडेट हमारे इलाके को क्यों नहीं मिलता जो इस बेहद पिछड़े संसदीय क्षेत्र में विकास की गंगा बहाए, कुछ बदलाव करे. वही घिसे-पिटे नेता, जिनका किसी तरह का कोई जनांदोलन याद नहीं रहता. टिकट पाने के लिए सबसे बड़ी योग्यता यह है कि कौन कितना पैसा फेंक सकता है. एकाध बार तो हम यह भी सपना देखते कि मोदी, राहुल, प्रियंका जैसा कोई बड़ा नेता हमारे इलाके में आए जाए तो हमारे इलाके की तकदीर बदल जाए. खैर कोई दिग्गज नेता हमारे पिछड़े संसदीय क्षेत्र में तो नहीं आया, लेकिन कांग्रेस और राहुल ने जिस सुप्रिया श्रीनेत पर भरोसा जताया है और लंदन से पढ़कर लौटी अमर मणि की बेटी जिस तरह से इलाके की राजनीति में उतरी हैं, वह कम से कम ताजी हवा के झोंके जैसा ही है.
सुप्रिया के पिता हर्षवर्धन का नाम इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है. मैं खुद बचपन में पहली बार जिस नेता से परिचित हुआ वह जनता दल के हर्षवर्धन ही थे. बचपन में जब उनके चुनाव प्रचार वाली जीप कस्बे में आती तो हम उसमें लटक लेते और उस प्रचार वाली जीप के साथ न जाने कौन-कौन से अनजान गांवों की सैर कर आते. हर्षवर्धन काफी हेल्दी और कद़दावर थे. वह कई बार फरेंदा विधानसभा से विधायक रहे और बाद में वह दो बार महाराजगंज से सांसद भी बने. दुखद यह रहा है कि उनका कम उम्र में ही निधन हो गया. इलाके में लोगों के बीच हर्षवर्धन की काफी इज्जत-सम्मान है और इसका लाभ तथा सहानुभूति सुप्रिया को मिल सकती है. लेकिन उन्हें काफी मेहनत करनी होगी और उसी तरह से गांव-गांव घूमना होगा, जिस तरह से हर्षवर्धन जी घूमा करते थे. सुप्रिया के लिए मेरा एक सुझाव है कि वे मीडिया और सोशल मीडिया के भरोसे ज्यादा न रहे और ज्यादा से ज्यादा गांवों में घर-घर पहुंचने की कोशिश करें. इसकी वजह यही है कि ऐसा कोई घर शायद ही होगा जहां लोग हर्षवर्धन को न जानते हों, तो उन्हें इस परिचय को अपने प्रति जनसमर्थन में बदलना होगा.
सुप्रिया प्रचार के मामले में बाकी सभी प्रत्याशियों से आगे निकल गई  हैं. मोटरसाइकिल रैली, कार्यकर्ता बैठक, जनसभा आदि फेसबुक के माध्यम से देखकर लगता है कि वे अभी से काफी मेहनत कर रही हैं, जबकि इलाके में चुनाव अंतिम दौर में है. दूसरी तरफ, सपा अभी अपने प्रत्याशी का नाम भी फाइनल नहीं कर पाई है. सपा के लिए कभी अखिलेश सिंह, तो कभी किसी कृष्णपाल सिंह और कभी गणेश शंकर पांडे का नाम सामने आ जाता है. तनुश्री के पास शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का टिकट है, लेकिन एक तो वह अभी अपनी शादी की तैयारियों में व्यस्त हैं, जो इसी महीने है और दूसरे, कांग्रेस के टिकट कट जाने के झटके से उबर नहीं पा रहीं. इसलिए उनका प्रचार अभियान भी पिछड़ता दिख रहा है. तनुश्री का प्लस पाॅइंट यह है कि उनके पिता भले जेल में हों, लेकिन उनका मार्गदर्शन उनके साथ है. उनके एक भाई विधायक हैं और इस तरह उन्हें परिवार का अच्छा सपोर्ट है. कम से कम दो विधानसभा में अमरमणि के काफी कमिटेड वोटर हैं, जिनका लाभ उनको मिलेगा. धन बल में भी वे सुप्रिया से काफी मजबूत लगती हैं.
बीजेपी कैंडिडेट पंकज चैधरी तेल के बड़े व्यापारी हैं,  उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है, उनके साथ मोदी-बीजेपी का नाम है और वह पिछला कई चुनाव जीतते भी रहे हैं. तो उन्हें फिलहाल सबसे मजबूत कैंडिडेट माना जा रहा है. 
एक तरह से यह अच्छी खबर है कि इन दबंग और कद्दावर राजनीतिक परिवारों की लड़कियां राजनीति में आ रही हैं. इसका फायदा यह है कि लड़कियां अपने पिताओं के उस विरासत को तो शायद ही आगे बढ़ाएंगी, जिन्हें दबंगई कहते हैं. लड़के अपने पिता की दबंगई को और विस्तार ही देते देखे जाते हैं. लेकिन कम से कम लड़कियों से हम यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वे कुछ नया और कुछ बेहतर करेंगी. हालांकि हाल की कुछ घटनाओं से मेरी उम्मीद कुछ हिली है. असल में विरासत से राजनीति में आने वाली हर महिला शुरू में अपने परिवार, समाज के इशारे पर चलने वाली गूंगी गुड़िया जैसी लगती है, लेकिन बाद में राजनीति सीखने पर वह समाज को नेतृत्व देने लगती है, तो मैं भी इस मामले में फिलहाल सकारात्मक सोच के साथ उम्मीद से लबरेज हूं.
क्या होगा अगर दोनों में से कोई एक महिला जीती तो
एक पत्रकार होने, अपने संसदीय क्षेत्र से करीब 900 किमी दूर दिल्ली में रहने और अब दिल्ली का ही मतदाता होने की वजह से मैं वहां की राजनीति के लिए अपाॅलिटिकल जैसा ही व्यवहार करता हूं. यहां से मुझे लगता है कि सभी मेरे अपने हैं और मैं किसी की हार-जीत की बात क्यों करूं. लेकिन एक क्षण के लिए मैं बस कल्पना कर लेता हूं कि दोनों में से कोई एक महिला जीती तो क्या होगा? (इसके लिए बाकी कैंडिडेट मुझे माफ करेंगे). दोनों बेहद पढ़ी-लिखी अंग्रेजीदां महिलाएं हैं जिनके लिए मोदी, अमित शाह, राहुल या प्रियंका और तमाम मंत्रियों से मिलकर अपनी बात प्रभावी तरीके से अंग्रेजी-हिंदी में रखने और संसदीय क्षेत्र के लिए जायज मांगों को मनवाने में कभी कोई दिक्कत नहीं आने वाली है. वे संसद में भी इलाके की समस्याओं को प्रभावी तरीके से उठा पाएंगी. उनके महिला होने के नाते इस बेहद पिछडे़ इलाके में महिला सशक्तीकरण बढ़ेगा और अब तक लड़कियों को दमित रखने वाले परिवार भी उन्हें पढ़ाने के लिए प्रेरित होंगे, क्योंकि इस जिले में महिलाओं के मामले में अभी रोल माॅडल की बेहद कमी है. तमाम महिला ग्राम प्रधान, जिला पंचायत सदस्य और अन्य महिला नेत्रियां सांसद तक अपनी बात को निस्संकोच रख पाएंगी.
अगर दोनों हार गईं तो
इन लड़कियों की असली परीक्षा उनकी हार के बाद होगी. क्या जीत-हार के बाद महाराजगंज उनके लिए पिकनिक स्थल जैसा ही रहेगा? क्या हारने के बाद सुप्रिया अपनी टीवी की नौकरी में वापस चली जाएंगी या वाकई महाराजगंज के बेहद पिछड़े, गरीब लोगों के बीच रहकर उनके अधिकारों के लिए काम करेंगी? क्या जीत-हार के बाद लंदन रिटर्न तनुश्री दिल्ली-लखनऊ में ही डेरा डाल देंगी या महाराजगंज की जनता की सेवा में अपना समय लगाएंगी? क्या उनके राजनीति में आने से संसदीय इलाके की राजनीति का स्वरूप, नैरेटिव कुछ बदलेगा या उसी तरह से जनता धनबल, जाति, धर्म के नाम पर वोट करती रहेगी? अगर कुछ नहीं बदलता और वे उसी सामंती पुरुष सत्तात्मक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की कठपुतली बनी रहती हैं, तो फिर हमारे जैसे तमाम प्रवासियों, युवाओं, महिलाओं का इनको सपोर्ट करने का कोई मतलब नहीं बनता. आगे क्या होगा यह समय ही बताएगा?
यह इलाका चौंका सकता है
मैं नहीं जानता कि इन काॅन्वेंट एजुकेटेड लड़कियों ने अपने इलाके में बचपन के कितने साल गुजारे हैं, वे इलाके को कितना जानती हैं? लेकिन पूर्वांचल का भोजपुरिया सामंती संस्कृति वाला जिला उन्हें कई चौंकाने वाले वाकयों से रूबरू करा सकता है. इसलिए भी कि वे राजनीति जैसी पथरीली राह पर चल पड़ी है, जहां विरोधी की पूरी कुंडली खंगाल ली जाती है. सामंती संस्कृति अपने आप में एक तरह से महिला विरोधी होती है, इसलिए उनके लिए इस पुरुष प्रधान, फूहड़ सांस्कृतिक वाले परिवेश वाली राजनीति में आगे बढ़ना आसान नहीं होगा.

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

जीवन दर्शन

खुशी

हर दिन, हर पल


खुश रहने के लिए कुछ पाने की दरकार नहीं होती। अपने जीवन में खुशियां लाने के लिए दूसरों से तुलना छोड़कर हर परिस्थिति में वर्तमान का आनंद लेना होगा...

-आपको जीवन में क्या चाहिए?
- नियमित मोटी आमदनी, बड़ा-सा मकान, बड़ी गाड़ी और क्या?  
- और खुशी?
- खुशी! पैसा रहेगा तो खुशी अपने आप आ जाएगी...।
ज्यादातर लोग ऐसा ही सोचते हैं। पर सच यह है कि यह पूरी तरह सही नहींहै। धन-संपदा आने के बाद भी खुशी नहीं आ पाती। अगर पैसे से ही खुशी खरीदी जा सकती तो डिप्रेशन को 'अमीरों की बीमारी' नहीं कहा जाता। तब खुशहाली की सूची में भूटान जैसे गरीब देश शीर्ष पर नहीं होते। फिर कैसे आ सकती है खुशी? ज्यादातर लोगों के दुखी रहने की वजह क्या होती है? आइए इसका विश्लेषण करते हैं।
क्या है दुख की वजह
ज्यादातर लोग दुखी इस वजह से रहते हैं, क्योंकि उनका जीवन तमाम तरह की समस्याओं से घिरा होता है। अगर नौकरी करते हैं तो महीने के अंत में पैसे के मामले में हाथ तंग हो जाता है। कोई इसलिए दुखी है कि मकान नहीं बनवा पा रहा, किसी की बेटी की शादी नहीं हो रही, तो कोई इसलिए दुखी है कि उसके पास कार नहीं है और उसे लोकल ट्रेन या बसों में धक्के खाने पड़ते हैं, तो कोई अपने परिवार के किसी सदस्य की बीमारी की वजह से परेशान है। सवाल उठता है कि जीवन में इतनी समस्याओं के होते हुए लोग खुश कैसे रहें? इस बारे में आठवीं सदी के भारतीय संत शांतिदेव ने बहुत अच्छी बात कही है। उन्होंने कहा था, 'अगर आप किसी समस्या से परेशान हैं तो उसके बारे में गहराई से चिंतन कीजिए कि क्या वह समस्या हल हो सकती है? अगर हां में उत्तर आता है, तो फिर चिंता किस बात की। आप उसे हल करने का प्रयास कीजिए। लेकिन अगर चिंतन में आपको लगता है कि वह समस्या हल ही नहीं हो सकती, तब भी चिंता किस बात की? चिंता करने से समस्या हल तो नहीं हो जाएगी।'
ज्यादातर लोग दुखी इसलिए भी रहते हैं, क्योंकि वे अपने जीवन का विश्लेषण करते वक्त दूसरों से उसकी तुलना करते हैं। उन्हें अपना धन-संसाधन कम लगता है। हमेशा कोई न कोई ऐसा उदाहरण मिल जाता है, जो उनसे ज्यादा धनी होता है, जिसके पास उनसे बड़ी कार होती है। संसाधन जुटाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करने में कोई बुराई नहीं हैं। धन और तमाम भौतिक चीजें जुटाने और उनका उपभोग करने में भी कोई बुराई नहीं, सवाल बस इतना है कि यह सब करते हुए भी अपने मौजूदा जीवन से खुश कैसे रहें?
आपको कितना पैसा मिल जाए तो आप खुश रहेंगे? इस सवाल पर ज्यादातर लोग ऐसी सोच रखते हैं कि अपना मकान हो जाए या बिटिया की शादी हो जाए या अच्छी नौकरी मिल जाए या बेटे-बेटी का इंजीनियरिंग/मेडिकल में सलेक्शन हो जाए, उसके बाद ही घर में असली खुशी आएगी। पर असली खुशी ऐसे लोग अपने घर में कभी नहीं ला पाते, क्योंकि उन्होंने खुशी के लिए तमाम शर्तें और बंदिशें लगा रखी हैं और किसी न किसी बात पर दुखी रहना उनकी आदत में शुमार हो चुका है।
क्या आप हैं परम दुखियारे
कुछ लोग सदाबहार दुखियारे होते हैं। उनके पास कार, मकान, अच्छी नौकरी, संतान सब कुछ होते हुए भी वे दुखी रहते हैं, क्योंकि किसी के पास उनसे बड़ी कार है, तो किसी की तुलना में उनका मकान छोटा है। ऐसे सदाबहार दुखियारे लोगों को खुश करना मुश्किल होता है। अगर आप भी ऐसे लोगों में शुमार हैं, तो सुबह उठिए और शीशे में अपना चेहरा देखिए। क्या आप खुद अपना चेहरा देखकर खुश हो रहे हैं? कहीं आप खुद से ही असंतुष्ट तो नहीं लग रहे हैं। याद कीजिए, आप पिछली बार कब हंसे थे? आप दिन भर में कितनी बार हंसते हैं? ऐसा तो नहीं कि जब कोई टीवी कार्यक्रम देखकर लोग दिल खोलकर हंस रहे होते हैं, तब भी आप ऐसी फीकी-सी हंसी हंसते हैं, जैसे आपको हंसने के लिए कोई मजबूर कर रहा हो? पार्टियों में जब तेज आवाज में म्यूजिक बज रहा हो, डीजे फ्लोर पर लोग कूद-फांद कर आनंद ले रहे हों, तब भी आपके पैरों में कोई कंपन नहीं होता?
सफलता कितनी भी मिल जाए, वह तुलनात्मक ही होती है। आप कितना भी पैसा क्यों न कमा लें, आप एग्जाम में कितने भी अंक क्यों न हासिल कर लें, आपसे ज्यादा पैसा कमाने वाला या आपसे ज्यादा अंक लाने वाला कोई मिल ही जाता है। सोचिए, अगर आपके हिसाब से कम पैसा कमाने वाले लोग दुखी रहने लगें, तो दुनिया में खुश रहने का अधिकार तो सिर्फ बिल गेट या वारेन बफे को ही होगा। आपके हिसाब से तो बाकी लोगों को दुखी रहना चाहिए। अगर आप खुश रहना चाहते हैं तो आपको यह समझना होगा कि आप जीवन में तमाम अभावों और भौतिक सुखों के बिना भी खुश रह सकते हैं।
कैसे रहें खुश
पहले तो आपको इस पर गहराई से चिंतन करना होगा कि खुशी होती क्या है? अमेरिका के मशहूर मोटिवेशनल लेखक डेनिस वेटली ने कहा है कि खुशी कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे आप कहीं जाकर खरीद या उपभोग कर सकते हैं। वह तो हर क्षण प्यार, शिष्टता और कृतज्ञता के साथ जीने से मिलती है। यह एक आध्यात्मिक अनुभव होती है। जीवन में खुशी इस बात से नहीं आती कि आपने कितना कुछ हासिल कर लिया, बल्कि खु
शी इस बात से आती है कि आप उसे कितना महसूस करते हैं। जीवन में आनंद को कितनी जगह देते हैं।
खुश रहने के लिए किसी अच्छे दिन का इंतजार न करें। मशहूर फारसी दार्शनिक और शायर उमर खैयाम ने कहा था, 'इसी क्षण खुश हो जाएं, क्योंकि यही क्षण आपका जीवन है।` हर दिन कुछ मिनट ऐसी चीजों के बारे में जरूर सोचें, जिनसे आप खुश हो सकते हैं। इन मिनटों में आप अपने जीवन के सकारात्मक चीजों पर ध्यान केंद्रित करेंगे और इनसे आपको लगातार खुशहाल जीवन जीने में मदद मिलेगी।
अगर आप समझते हैं कि आप खुश रह सकते हैं, तो अपने आसपास खुश रहने वालों को साथ रखें। यदि कुछ गलत हो जाए तो किसी को दोषी ठहराने की जगह समाधान निकालने की कोशिश करें। पहले इस बात पर भरोसा करें कि आप खुशी पा सकते हैं। इसके बाद खुशी पाने की ओर बढ़ें। यह मानना छोड़ दें कि खुशी तो नसीब की बात होती है और यह सबको नहीं मिलती।
दिनेश अग्रहरि

गुरुवार, 25 जून 2015



जानें पिता का जीवन संघर्ष

आज तमाम ऐसे लोग हैं जो काफी बेहतरीन जिंदगी जी रहे हैं। उन्‍होंने अच्‍छे स्‍कूल में पढ़ाई की, बढि़या कपड़े पहनते हैं, अच्‍छे से अच्‍छे गैजेट इस्‍तेमाल करते हैं और अच्‍छी नौकरी कर अपना सफल जीवन जी रहे हैं। उनके पिता ने पढ़ाई से लेकर गैजेट, बाइक जैसे संसाधनों तक कहीं कोई कमी नहीं होने दी। लेकिन क्‍या उन्‍होंने सोचा है कि आज जिस पिता की बदौलत वे इतनी अच्‍छी जिंदगी जी रहे हैं,  उन पिता ने अपनी जवानी या पूरी जिंदगी कैसे गुजारी है, उन्‍होंने अपने किन सपनों, आकांक्षाओं को दफन किया है? इस फादर्स डे पर आप यह जानने की कोशिश कर सकते हैं कि आपके पिता की ऐसी कौन-सी अधूरी ख्‍वाहिशें हैं, जिन्‍हें अब आप पूरा कर सकते हैं, जैसे- हवाई यात्रा, किसी खास स्‍थान का पर्यटन या और कुछ।
इस फादर्स डे पर हम क्‍यों न अपने पिता के मन को टटोलें, जानें कि क्‍या अब भी कोई इच्‍छा उनके मन में दबी रह गई है, जिसे आप पूरा कर सकते हैं। हो सके तो कुछ दिन की छु्ट्टी लेकर पिता के साथ रहें, शायद यही उनके लिए फादर्स डे का सबसे बड़ा गिफ्ट साबित हो। उनके साथ बैठकर उनके अतीत को जानने की कोशिश करें, यह जानें कि उन्‍होंने अपने जीवन में कितना संघर्ष किया है।
घर आ जाओ बेटा
कहते हैं कि पिता एक ऐसे क्रेडिट कार्ड हैं, जिनके पास बैंक बैलेंस न होते हुए भी वे हमारे सपने पूरे करने की हर कोशिश करते हैं। पिता किसी को कुछ न देते हुए भी बहुत कुछ दे जाते हैं, तमाम लोगों के तो रोल मॉडल ही पिता होते हैं। तो हम पिता के इस त्‍याग और संघर्ष के बदले उन्‍हें क्‍या दे सकते हैं? यह जरूरी नहीं कि आपके पिता की इच्‍छा तीर्थ पर जाने या हवाई यात्रा करने की ही हो, उनकी इच्‍छा कुछ भी हो सकती है, जिसको आप आसानी से पूरी कर सकते हैं। बेंगलुरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर अनंत के मार्मिक अनुभव को आपसे साझा करता हूं। कुछ दिनों पहले उन्‍होंने अपने पिता को फोन कर कहा, ‘पापा इस 21 जून को फादर्स डे है, मैं चाहता हूं कि उस दिन आपको कोई गिफ्ट दूं या आपकी ऐसी किसी इच्‍छा को पूरा करूं, जो अधूरी रह गई हो, बताइए मैं आपके लिए क्‍या कर सकता हूं?’ उनके पापा ने जवाब दिया, ‘बेटे तुम घर आकर साथ हफ्ता भर गुजार लो, यही मेरे लिए सबसे बड़ा गिफ्ट होगा।‘ अनंत जॉब की व्‍यस्‍तता की वजह से पिछले दो साल से बिहार के अपने गांव नहीं जा पाए हैं।
हर पिता हैं एक कहानी
हर पिता अपने आप में एक अलग कहानी होता है। सबके पास अपने पिता के बारे में कोई न कोई कहानी होगी। आपको ऐसी ही कुछ मार्मिक कहानियों से रूबरू करता हूं। 
आनंद के पिता एक पोस्‍टमास्‍टर थे और अब रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं। जब आनंद का खून जवान हुआ, तब ही से पिता से उनके रिश्‍ते बिगड़े हुए थे। उनके पिता से हमेशा वैचारिक मतभेद रहे और कई बार तो उनके बीच महीनों तक बोलचाल नहीं होता था। पर आज जब आनंद खुद पिता बन गए हैं और एक मेट्रो शहर में रहते हुए सफल करियर के मुकाम पर हैं, तो उनको पिता की बहुत याद आती है। हाल में वे लखनऊ से दिल्‍ली तक फ्लाइट से अपने पिता को साथ लेकर आए। उनके पिता बेहद द्रवित हो गए, उनकी आंखों से आंसू निकल पड़े। ट्रेन के एसी कोच में भी कभी न बैठने वाले उनके पिता ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कभी प्‍लेन में बैठेंगे और वह भी उस बेटे की वजह से, जिससे उनके रिश्‍ते इतने तल्‍ख थे।
फटे जूते क्‍यों पहनते हैं पिता   
एक पिता दीक्षा के भी हैं। एक इंजीनियरिंग कॉलेज की स्‍टूडेंट दीक्षा अक्‍सर सोचती रहती हैं कि उनके पिता ब्रांडेड कपड़े क्‍यों नहीं पहनते, पैंट-शर्ट की क्रीज की परवाह क्‍यों नहीं करते, दशकों पुरानी घड़ी अब भी कलाई पर क्‍यों बांधे रहते हैं, फटे हुए जूते भी बार-बार सिलवाकर क्‍यों पहनते रहते हैं? परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब भी तो नहीं है। जी नहीं, ऐसा नहीं कि दीक्षा के पिता कोई संत हैं, जिनकी कोई आकांक्षा, कोई सपना न हो। शायद दीक्षा के पिता ने उनको महंगे गैजेट, ब्रांडेड कपड़े, अच्‍छा एजुकेशन दिलाने के लिए अपने सारे सपने दफन कर दिए हैं। वे जानते हैं कि महंगाई के इस जमाने में और सीमित आय में सबके सपने पूरे नहीं हो सकते।
हंसते क्‍यों नहीं पिता
एक पिता भार्गव के भी हैं। एक रियल एस्‍टेट कंपनी में एग्जिक्‍यूटिव भार्गव से जब मैंने उनके पिता के बारे में पूछा तो बोले, ‘पिता के बारे में तो मैं यही सोचता रहता हूं कि वे हंसते क्‍यों नहीं, घर में पार्टी हो और जबर्दस्‍त म्‍यूजिक बज रहा हो, तो भी उनके पैर कभी थिरकते क्‍यों नहीं? भार्गव को इसका जवाब अभी नहीं मिला है। भार्गव के पिता शायद इसलिए नहीं हंसते हों, क्‍योंकि परिवार के लिए जिंदगी की जरूरतों को जुटाने की जोड़-तोड़ में दिमाग और शरीर को वर्षों तक बुरी तरह उलझाए रहने से उनका स्‍वभाव ही ऐसा हो गया है।
दिनेश अग्रहरि
                                  


शनिवार, 17 मई 2014

इसके पहले भी कई बार आ चुकी है ‘सुनामी‘
मेरे एक दोस्त इसे ‘सुनामी‘ बता रहे थे, वह कह रहे थे यह ऐतिहासिक है। उनका मानना है कि इतने ‘जबर्दस्त‘ जनादेश का मतलब है कि अगले 15-20 साल के लिए भाजपा को देश पर राज करने का अधिकार मिल गया है और हारने वाली कांग्रेस हमेशा के लिए खत्म हो चुकी है। मैंने उनसे पूछा कि आपको पता है कि भारतीय चुनाव के इतिहास में इसके पहले ‘सुनामी‘ कब-कब आई थी। तो उन्होंने कहा, ”मैं तो अयोध्या आंदोलन के दौर में पला-बढ़ा हूं, मैं उसके पहले का इतिहास नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता। मेरे संस्कार ज्यादा पढ़ने-लिखने से मना करते हैं क्योंकि अगर मैंने ज्यादा पढ़ लिया तो मेरे ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे, फिर मैं ‘हे मोगैम्बो‘ की तरह किसी एक विचारधारा की गुलामी कैसे करूंगा?“  मैंने कहा कि कोई बात नहीं, आपकी तरफ से मैं ही इतना कष्ट कर लेता हूं। तो दोस्तों 2014 के चुनाव में बीजेपी के 283 सीट हासिल करने को आधार पर मैंने पता लगाने की कोशिश की आखिर ऐसी सुनामी इस देश में पहले कितनी बार आई थी।
शुरुआत करते हैं पहले आम चुनाव 1951-1952 से- इसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुल 489 सीटों में से 364 सीटें जीत कर और 45 फीसदी वोट हासिल कर सत्ता में आई थी।
दूसरे आम चुनाव 1957- कुल 490 लोक सभा सीटों में से कांग्रेस को 371 सीट और करीब 48 फीसदी वोट
तीसरे आम चुनाव- कुल 494 सीटों में से कांग्रेस को 361 सीट और 45 फीसदी वोट

चैथे चुनाव 1967- कुल 520 सीटों में से कांग्रेस को 283 सीटें हासिल हुईं
पांचवें लोक सभा चुनाव 1971- कुल 518 सीटों के चुनाव में कांग्रेस को 352 सीटें और 44 फीसद वोट हासिल हुए।
छठे लोक सभा चुनाव- जनता पार्टी को 345 सीटें और 52 फीसदी वोट मिले, कांग्रेस को करीब 217 सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा
सातवें लोक सभा चुनाव 1980- कुल 542 सीटों में से कांग्रेस को 374 सीटें हासिल हुईं
आठवें लोक सभा चुनाव 1984- राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को कुल 533 सीटों में से 414 सीटें और 51 फीसदी वोट हासिल हुए। इतनी सीटें अपने आप में एक रिकाॅर्ड हैं, लेकिन इसे भी ‘सुनामी‘ नहीं कहा गया, बल्कि इंदिरा गांधी की मौत के बाद उपजी सहानुभूति लहर बताया गया।
हालांकि, यह नहीं पता चल पाया कि उक्त चुनावों में नेताओं के पीआर और चुनाव प्रचार व मार्केटिंग पर कितने हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाते थे। यह भी नहीं पता चल पाया कि तब उद्योगपति, मीडिया पार्टियों को कितना सहयोग करते थे, कोई अपना हेलीकाॅप्टर देता था या नहीं। एक्जिट पोल, सर्वे वगैरह तो होते नहीं थे, दिन-रात चीखने वाले चैनल भी नहीं थे, फिर मीडिया से टाई-अप कैसे किया जाता था, इसकी भी कोई जानकारी नहीं मिल पाई है।
यह सब आंकड़े सुनने से मेरे दोस्त का सिर चक्कर खाने लगा। उन्होंने कहा कि आप मेरे जन्म से पहले का इतिहास क्यों बताते हैं, इतिहास वहीं से शुरू होता है जबसे मैं पैदा होता हूं, देखना मित्र कांग्रेस बिल्कुल खत्म है। मैंने पूछा कि कई दशकों तक विपक्ष में रहने और 1984 में महज दो सीटों पर सिमट जाने के बावजूद जब भाजपा (जनसंघ) खत्म नहीं हुई तो कांग्रेस कैसे खत्म हो जाएगी। तो उनका कहना था कि बीजेपी नहीं खत्म हो सकती क्योंकि उसे आसाराम, बाबा रामदेव जैसे तमाम संतों का आशीर्वाद हासिल है, खत्म होने का अधिकार सिर्फ कांग्रेस और केजरीवाल को है।

रविवार, 5 जनवरी 2014

'आप' की नीति
ईस्ट इंडिया कंपनी का जमाना
कब का गया साहब

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उभार और उसके लोकलुभावन कदमों
से शेयर बाजार में निवेश करने वाले एफआईआई बेचैन हैं। खासकर
बिजली कंपनियों के ऑडिट और टैरिफ में कटौती जैसे आप के कदमों
से निवेशकों में डर समा गया है। दिल्ली सरकार के लोकलुभावन कदमों
और आप के कॉरपोरेट विरोधी चरित्र की वजह से पूरा कॉरपोरेट सेक्टर
सहमा हुआ है। असल में आम आदमी पार्टी का विकास एक एनजीओ
की बुनियाद पर हुआ है और उसके कार्यकर्ताओं में गरीब-गुरबे से लेकर
अच्छी सैलरी कमाने वाले मध्यम वर्गीय नौजवान तक शामिल हैं। इसके
विचारकों में समाजवादी और वामपंथी धारा के लोग ज्यादा दिखते हैं,
इसलिए इसका चरित्र कंपनी, कॉरपोरेट विरोधी ज्यादा दिख रहा है। पर
आप को समझना होगा कि देश को ईस्ट इंडिया कंपनी के चंगुल से बाहर
हुए जमाना हो गया है और आज 'कंपनी' का वैसा शोषक चरित्र नहीं
है जैसा कि ईस्ट इंडिया के जमाने में रहा है। आज अगर कुछ कंपनियां
जालसाजी, चोरी, बेईमानी या शोषण में लिप्त पाई गई हैं तो ज्यादातर
कंपनियों ने देश-विदेश के करोड़ों नौजवानों को रोजगार भी दिए हैं, उन्हें
पेशेवर बनाया है। सच तो यह है कि धीरूभाई अंबानी जैसे गुजरात के
एक आदमी ने अपनी मेहनत से देश की सबसे बड़ी निजी कंपनी खड़ी
की है। इसलिए आम आदमी पार्टी को समूचे कंपनी, कॉरपोरेट जगत को
चोर-बेईमान समझने की मानसिकता से बाहर निकलना होगा। हाल में
कॉरपोरेट जगत के कई बड़े अधिकारियों के आप ज्वाइन करने के बाद
उम्मीद है कि पार्टी में कॉरपोरेट के बारे में समझ थोड़ी बढ़ेगी।
(बिज़नेस भास्कर में मेरे द्वारा लिखा गया सम्पादकीय)

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

'आप' का प्रयोग:
पूरी दिल्ली बनी पंचायत
दिल्ली में सरकार बनाने के लिए उहापोह की स्थिति के बीच आम आदमी
पार्टी ने जनता का मत जानने के लिए लाखों चिट्ठियां भेजने का निर्णय
लिया है। इसके अलावा एसएमएस, फोन कॉल और फेसबुक के माध्यम
से भी इस बारे में जनता से राय मांगी जा रही है कि 'आप' दिल्ली में
सरकार बनाए या न बनाए। संचार के विकसित साधनों और सोशल
मीडिया के इस जमाने में 'आप' पहले भी कई तरह के अनूठे प्रयोग
करती रही है, लेकिन सरकार बनाने के लिए जनमत जानने का उसका
यह तरीका भारतीय लोकतंत्र में पहली बार हो रहा है। अगर यह प्रयोग
सफल रहता है तो भारत वास्तव में इस मामले में लोकतांत्रिक देशों का
अगुआ बन जाएगा। कई लोगों की यह राय है कि एक बार जनता अपना
मत दे चुकी है, तो फिर उसकी राय जानने की यह कवायद वास्तव में
जनता को बेवजह तंग करने जैसा ही है। हालांकि, अभी तक त्रिशंकु
विधानसभा या लोकसभा की स्थिति में जिस तरह की खरीद-फरोख्त का
दौर चलता रहा है, उसे देखते हुए 'आप' की यह कवायद भी राहत देने
वाली ही है। अच्छी बात यह है कि अब जनता की भूमिका सिर्फ चुनाव
होने तक सीमित नहीं रह जाएगी, बल्कि सरकार बनाने में भी उसकी
राय महत्वपूर्ण होने जा रही है। देश में बढ़ते युवा मतदाताओं, जो ज्यादा
शिक्षित और टेक्नोफ्रेंडली है, और संचार क्रांति की वजह से इस तरह के
प्रयोग करने अब आसान हो गए हैं। तो पहले जैसे ग्राम पंचायतों में हाथ
उठवा कर जनता की राय ली जाती थी, अब संचार साधनों और सोशल
मीडिया की बदौलत पूरा एक प्रदेश या  देश ही पंचायत में तब्दील हो सकता है।
(बिजनेस भास्कर में 19 दिसंबर को प्रकाशित मेरे द्वारा लिखा गया संपादकीय )

बुधवार, 27 नवंबर 2013

दुनिया भर के लिए राहत भरी खबर है जेनेवा समझौता

ईरान और दुनिया के छह बड़े देशों के बीच इस शनिवार को जेनेवा में नाभिकीय कार्यक्रमों पर हुआ अंतरिम समझौता मध्य एशिया और दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक राहत भरी खबर है। इस खबर के असर से ही सोमवार को ब्रेंट क्रूड ऑयल भारी गिरावट के साथ 108 डॉलर प्रति बैरल के आसपास पहुंच गया और इसके असर से भारत में बीएसई सेंसेक्स में 388 अंकों का उछाल देखा गया। इस समझौते से खासकर भारत, चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, टर्की और ताइवान को फायदा हो सकता है, जो अब भी ईरान से तेल खरीद रहे हैं। भारत को इसका कितना फायदा होगा और फायदा मिलने में कितना समय लगेगा, यह अभी साफ नहीं है। ईरान पर प्रतिबंध के पहले वहां से 23 देश तेल आयात करते थे, लेकिन 2012 में लगे प्रतिबंध के बाद सिर्फ उक्त छह देश ही तेल का आयात कर रहे हैं। हालांकि, भारत जैसे कई देशों ने आयात में भारी कटौती भी कर दी थी। अभी यह अंतरिम समझौता है, लेकिन भारत जैसे देशों को इस बात के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाना चाहिए कि यह एक पूर्ण समझौते में बदले और ईरान के ऊपर लगे तेल निर्यात के सभी महत्वपूर्ण
प्रतिबंधों को खत्म किया जाए। इससे जो प्रतिबंध हटेंगे उससे ईरान को तेल बेचने पर करीब 4.2 अरब डॉलर का राजस्व हासिल होगा। यह समझौता यदि कारगर होता है और इसके तहत गहन बातचीत की प्रक्रिया चलती है तो यह सबके लिए काफी फायदे की बात होगी। लेकिन कोई अंतिम समझौता नहीं हो पाया तो इसके
बाद महाशक्तियों को ईरान पर सैन्य कार्रवाई करने का पुख्ता बहाना मिल जाएगा कि अब कोई रास्ता बचा ही नहीं है। जो भी हो, भारत को ऐसे प्रयास का तहे दिल से समर्थन करना चाहिए क्योंकि ऊर्जा जरूरतों के लिए हम पूरी तरह से आयातक देश हैं और इस क्षेत्र में स्थिरता आने से ईरान सहित अन्य देशों में भारत के निर्यात को भी मजबूती मिलेगी। खासकर ईरान में जहां प्रतिबंध लगाए जाने के बाद निर्यात पर काफी बुरा असर पड़ा है। वर्ष 2012-13 में ईरान को भारतीय निर्यात महज 3.7 अरब डॉलर का हुआ है जो कि क्षमता से बहुत कम है। इस समझौते से भारत को कितना फायदा होगा इसे लेकर जानकारों में अलग-अलग राय है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने यह साफ किया है कि इससे तेल व गैस पाइपलाइन के बारे में ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि पाइपलाइन से जुड़े कई ऐसे मसले हैं जिनको सुलझाने में लंबा समय लग सकता है। ईरान से आने वाले टैंकरों के बीमा पर भी यूरोपीय संघ ने रोक लगा दी थी, लेकिन अब इस तरह के प्रतिबंध भी हट जाएंगे जिसके बाद भारत व टर्की जैसे देशों को तेल आयात सुलभ हो जाएगा। भारतीय तेल मार्केटिंग कंपनियों का कहना है कि इससे वे ईरानी तेल आसानी से मंगा सकेंगी, लेकिन ईरान से तेल आयात तात्कालिक तौर पर तो बढऩा संभव नहीं लगता। भारत ने वर्ष 2011-12 में ईरान से 1.74 करोड़ टन और 2012-13 में महज 1.4 करोड़ टन क्रूड ऑयल का आयात किया था। ऐसा माना जा रहा है कि ईरान सरकार पर दबाव बनाने के लिए भारत तेल आयात में कटौती अभी बरकरार रखेगा।
(26 नवंबर 2013 को बिज़नेस भास्कर में मेरे द्वारा लिखा गया सम्पादकीय )

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

दिल्ली में जानवर रहते हैं!

यूपी में दो हफ्ते से ज्यादा रहा और इसमें से करीब दस दिन अपने गांव धानी बाजार, महराजगंज में रहा. इस दौरान गांव की धीमी, सुकून भरी जिंदगी के पूरे मजे लेने की कोशिश करता रहा. अखबार कम ही पढ़ता था, टीवी बिल्कुल नहीं देखा और इंटरनेट पर बस जरूरी ई-मेल करने और कभी-कभी फेसबुक में झांक लेने के अलावा कुछ खास नहीं कर पाया. लेकिन दिल्ली आते ही यहां बलात्कार का घिनौना मामला सुनने में आया और दिल दहल गया. फिर से जिंदगी महानगरीय हलचल से आक्रांत हो गई.
इसी हफ्ते सोमवार को जब वापस आने की तैयारी कर रहा था, सुबह-सुबह पुराने पत्रकार मित्र विजय शंकर (आज तक) का फोन आया. उन्होंने कहा, ”दैनिक जागरण के साहित्य वाले पेज पर गीतांजलि श्री की किताब ‘यहां हाथी रहते थे‘ के बारे में जानकारी छपी है, तुमने इस शीर्षक से कोई कविता लिखी थी, देख लो कहीं चोरी का कोई मामला तो नहीं है.“ असल में करीब एक दशक पहले मैं कविताएं लिखने में सक्रिय था और तब ऐसी ही मेरी दो कविताएं देश की शीर्ष साहित्यिक पत्रिका ‘हंस‘ में छपी थीं. इनके शीर्षक हैं-‘दिल्ली में हाथी रहते हैं‘ और ‘न लिखने का कारण‘. दोनों बहुत छोटी कविताएं थीं. उस दिनो मैं छोटे शहर, गांव से हाल में महानगर आया एक संवेदनशील युवक था और दिल्ली की गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले समाज में काफी असहज महसूस करता था. कई ऐसी बातें हुईं, जिससे मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि दिल्ली में इंसान रहते हैं या नहीं. तभी यमुना पुल पर एक बोर्ड दिख गया और इसी बोर्ड से मुझे कविता लिखने की प्रेरणा मिली.
खैर, दैनिक जागरण का वह पेज दिल्ली आने से पहले देख नहीं पाया और यहां भी ई-पेपर पर वह मिल सका. असल में गीतांजलि श्री की किताब एक कहानी संग्रह है और मैंने तो इससे मिलते-जुलते शीर्षक से एक कविता भर लिखी थी. वैसे भी मेरा यह मानना है कि शीर्षक की चोरी कोई चोरी नहीं होती, चोरी तो तब होती है जब कोई शीर्षक बदलकर पूरा कन्टेंट अपने नाम से छाप ले (जैसा कि मेरे एक पूर्व संपादक ने किया था, उन्होंने क्रिकेट पर लिखे मेरे एक आलेख की हेडिंग बदलकर पूरा मैटर वैसे ही रखते हुए अपने नाम से एक कम चलने वाली पत्रिका में छपवा ली थी). मैंने भी अपनी कविता के शीर्षक की प्रेरणा आइटीओ से लक्ष्मीनगर जाने वाली यमुना पुल पर लगे एक बोर्ड से ली थी. उन दिनों यमुना पुल के पास पुश्ते पर बहुत बड़ी झुग्गी बस्ती हुआ करती थी और वहां कई लोग हाथी पाले रहते थे. इन हाथियों को शादी आदि में किराए पर देने का बिजनेस था, जिसे प्रचारित करने के लिए ‘यहां हाथी रहते हैं‘ लिखे हुए कई बोर्ड दिख जाते थे.
आज जब दिल्ली में बलात्कार को लेकर यहां के पूरे समाज पर सवालिया निशान लग रहे हैं. ऐसे में मेरी यह कविता फिर से प्रासंगिक नजर आ रही है. अपने दोस्तों के लिए अपनी इस छोटी सी कविता को फिर से पेश कर रहा हूं.

दिल्ली में हाथी रहते हैं

यहाँ  हाथी रहते हैं‘,
यमुना पुल से गुजरते ही दिख जाता है बोर्ड।
यहां भालू रहते हैं, यहां बंदर रहते हैं,
ऐसा भी बोर्ड होगा कहीं दिल्ली में,
शायद चिडि़या घर के पास।
‘यहां इंसान रहते हैं‘,
ऐसा बोर्ड भी दिल्ली में कहीं है क्या?
आपको दिखे तो बताना...

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रविवार, 6 मई 2012


आशुतोष की किताब और अन्ना आंदोलन पर कुछ सवाल
दिनेश अग्रहरि

इस आलेख को लिखने की शुरुआत में ही यह साफ करना चाहूंगा कि देश के करोड़ों लोगों की तरह मैं भी भ्रष्टाचार (घूसखोरी) खत्म करने के अन्ना ही नहीं बल्कि किसी भी द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन का समर्थक हूं। जब-जब अन्ना का दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर-मंतर पर धरना-अनशन हुआ, मैं वहां अन्ना टोपी लगाए एक बार जरूर पहुंचा हूं (इस बात के जोखिम के बावजूद कि हमारे तत्कालीन संपादक अन्ना आंदोलन को अच्छी नजरों से नहीं देखते थे) । हाल में जब मैंने आशुतोष की किताब ”अन्नाः 13 डेज दैट अवैकेन्ड इंडिया पढ़कर खत्म की तो पूरा आंदोलन फिर से मेरी यादों में जी उठा, लेकिन इसी के साथ फिर से मेरे मन को उन सवालों ने भी कांेचना शुरू कर दिया जो इस आंदोलन की शुरुआत से ही मुझे परेशान करते रहे हैं। अन्ना टीम का कोई भी व्यक्ति मेरा करीबी नहीं है जिससे मैं इन सवालों पर कुछ तर्क-वितर्क कर सकूं। फेसबुक पर आंदोलन के जो कुछ मेरे समर्थक दोस्त मिलते हैं वे विचारों से इतने क्रांतिकारी हैं कि आंदोलन के विरोध में एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करते और अन्ना आंदोलन का विरोध करने वालों के शाब्दिक नरसंहार तक पर उतर आते है। लेकिन मुझे लगता है कि मैं जब तक इन सवालों को उगल नहीं दूंगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा और इस पर अपने दोस्तों की राय से ही मेरे मन की उथल-पुथल शांत होगी।
मुझे पुस्तक समीक्षा लिखने नहीं आती, इसलिए यहां मैं समीक्षा लिखने का प्रयास नहीं कर रहा। पुस्तक समीक्षा का मतलब तो मैं यही समझता हूं कि किसी पुस्तक की अच्छाइयों और कमियों पर प्रकाश डाला जाए। अच्छाइयों एवं कमियों का यह अनुपात कितना हो, यह अक्सर लेखक के साथ समीक्षक के व्यक्तिगत रिश्ते से भी तय होता है। अच्छी बात यह है कि सिवाय फेसबुक पर दोस्त रहने के आशुतोष जी से मेरा कोई व्यक्तिगत संपर्क नहीं है। इसलिए मैं अच्छे से चीर-फाड़ कर सकता हूं। आशुतोष एक जबर्दस्त एंकर और सफल संपादक हैं। उनके नेतृत्व वाले चैनल आईबीएन-7 की आक्रामकता का मैं कायल हूं। इस बार उन्होंने अपना हुनर पुस्तक लेखन में दिखाया है। मेरे हिसाब से पुस्तक लेखन एक कला है जो सबको नहीं आती। मैंने कई पत्रकारों की किताबें पढ़ी हैं उनमें कई काफी बोरिंग, अकादमिक टाइप की होती हैं जो कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा मिलाकर बना कुनबा ही लगता है। लेकिन कला के हिसाब से देखें तो आशुतोष इस विधा में भी सफल रहे हैं। तो सबसे पहले आशुतोष की किताब की कुछ अच्छाइयों की बात करता हूं। वास्तव में यह पुस्तक अन्ना आंदोलन का एक जीवंत इतिहास है और साथ ही इतनी रोचक शैली में लिखी गई है कि यह इतिहास की अकादमिक पुस्तकों से काफी अलग भी है। आशुतोष इस आंदोलन के एक तरह से एम्बेडेड इतिहासकार जैसे रहे हैं जिसने पूरे आंदोलन को कवर करते हुए उसके बारे में लिखा है। जिस तरह से आज़ादी के बाद के इतिहास के लिए हम विपिन चंद्रा या रामचंद्र गुहा की किताबों पर भरोसा करते हैं उसी तरह अब अन्ना के रामलीला मैदान और जंतर-मंतर के इतिहास के लिए लोग आशुतोष की किताब का हवाला देंगे। हालांकि, यह सिर्फ अकादमिक तौर पर लिखी इतिहास की किताब नहीं है। यह किताब काफी रोचक शैली में लिखी गई है और आशुतोष ने इसमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक के कई आख्यानों का हवाला दिया है और बीच-बीच में अपनी निजी जिंदगी के भी कुछ संस्मरण पेश किए हैं। पुस्तक की भाषा (अंग्रेजी) भी ऐसी है कि मेरे जैसे अंग्रेजी विरोधी प्रदेश से आए लोगों को भी समझ में आ जाए और साथ ही उन्होंने चेतन भगत की तरह ग्रामर को बहुत तोड़ने-मरोड़ने की जरूरत भी नहीं समझी है।
अब बात करते हैं इस किताब की कमियों पर। आशुतोष के किताब की सबसे बड़ी कमी भी यही है कि उन्होंने एक तरह से एम्बेडेड इतिहास लिखा है। वे पूरी तरह से खुलकर अन्ना आंदोलन का समर्थन करते रहे हैं और यही एक रिर्पोटिंग और इतिहास का एक कमजोर पहलू साबित होता है। हम लोग तो उस पीढ़ी के पत्रकार हैं जिनको एस.पी. सिंह एवं राजेंद्र माथुर जैसे लोगों के साथ काम करने का मौका नहीं मिला है, लेकिन उनके साथ के लोगों का काम देखकर ही हम कुछ सीखने या अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि बेहतरीन पत्रकारिता कैसे की जा सकती है। मेरे मन में यह जिज्ञासा होती है कि आज अगर एस.पी. होते तो वे अन्ना आंदोलन पर क्या नजरिया रखते? क्या वे आशुतोष जैसे कई पत्रकारों की तरह खुलकर आंदोलन के सिपाही बन जाते या तटस्थ होकर इस आंदोलन की रिपोर्टिंग करने की कोशिश करते? मेरा व्यक्तिगत तौर पर तो यह मानना है कि जब आप किसी आंदोलन या विचारधारा के समर्थक होते हैं तो आप उसकी रिपोर्टिंग निष्पक्ष तरीके से नहीं कर सकते। जब आप किसी को भगवान मान लेते हैं तो आपको उसकी तरफ से कोई भी गलती या उसमंे कोई कमी नहीं दिखती। मुझे याद है कि जब मैं गोरखपुर में विद्यार्थी परिषद का कार्यकर्ता हुआ करता था तो संघ के आनुषांगिक संगठनों के किसी सम्मेलन की खबर बनाते समय कभी भी भीड़ का सही आकलन नहीं कर पाता था। यदि भाजपा की कोई जनसभा हो तो संघ पृष्ठभूमि वाले पत्रकार जहां इसमें उपस्थित लोगों की संख्या लाखों में दिखाते हैं तो उसी सभा को कम्युनिस्ट पत्रकार कुछ हजार में ही समेट देते हैं। एक ही जनसभा में उपस्थित लोगों के आकलन में इतना अंतर कैसे हो सकता है। विचारधारा और पूर्वाग्रह अवरोध खड़े करते हैं और मेरा यह मानना है कि पत्रकार बनने के बाद किसी व्यक्ति को ऐसे सभी पूर्वाग्रहों से दूर हो जाना चाहिए।
भ्रष्टाचार विरोधी किसी आंदोलन का खुलकर समर्थक हो जाने में कोई बुराई नहीं है, हो सकता है कि कल को आशुतोष भी टीम अन्ना के सदस्य हो जाएं, लेकिन हम पत्रकार तो उनसे यह उम्मीद जरूर करते थे कि वे इस बात का मार्गदर्शन करें कि अन्ना आंदोलन की रिपोर्टिंग किस तरह से की जाए। आंदोलन को कवर करने में अगर कमियां दिखें तो उसका खुलासा किया जाए या नहीं। इस मामले में आशुतोष कमजोर पड़े हैं, अंतिम अध्यायों में उन्होंने टीम अन्ना के कुछ निर्णयों पर सवाल उठाए हैं और उसमें मतभेदों की चर्चा जरूर की है, लेकिन पूरे आंदोलन के दौरान उन्हें किसी तरह का कोई हिप्पोक्रैसी नहीं दिखा है जो मेरे जैसे बहुत से सामान्य लोगों को भी देखने को मिला था।
मेरे ख्याल से अन्ना का आंदोलन घूसखोरी खत्म करने के भ्रष्टाचार के सीमित मसले से ही जुड़ा है और इस सीमित मसले को भी पाने में वर्षों लगने वाले हैं क्योंकि इसमें खुद के सुधार पर नहीं बल्कि दूसरों पर अंकुश लगाने पर ज्यादा जोर है। यह भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने का कोई व्यापक आंदोलन नहीं है। भ्रष्टाचार शब्द भ्रष्ट आचरण या विचार से बना है और घूसखोरी तो उसका एक छोटा हिस्सा ही है। अन्ना के आंदोलन में सिर्फ घूसखोरी खत्म करने पर ही जोर है और उसके लिए भी सरकारी कर्मचारियों एवं नेताओं के छोटे से वर्ग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि सरकारी कर्मचारियों एवं नेताओं के घूसखोरी पर अंकुश लगाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। यह आंदोलन युग निर्माण योजना की तरह व्यक्ति में चारित्रिक बदलाव, ‘हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा जैसे तथ्यों पर जोर नहीं देता। यह लोगों के भ्रष्ट आचरण में सुधार लाने का कोई अभियान नहीं है। यह मानता है कि सरकारी कर्मचारियों, नेताओं के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। जबकि भ्रष्टाचार की असल वजह लालच, असीम महत्वाकांक्षा है जो ज्यादातर लोगों के भीतर है। यह आंदोलन उस आम आदमी के भीतर बदलाव की अपील नहीं करता। ‘हमें सुधरने की जरूरत नहीं है, तुम सुधरो यह है इस आंदोलन का नारा। जरा सोचिए, क्या देश का आम आदमी कम भ्रष्ट है? अन्ना के आंदोलन में जिस मध्यमवर्गीय ‘आम आदमी की भीड़ दिखती है वह वास्तव में अपने जीवन-आचरण में कितना ईमानदार है? वह आम आदमी जो लाइन में लगकर काम कराने में यकीन नहीं करता, जो सड़क पर जेब्रा क्रॉसिंग और रेड लाइट जंप करने को अपनी आदत में शुमार कर चुका है, जो अपने बच्चे का एडमिशन शहर के टॉप स्कूल में कराना चाहता है चाहे उसका बच्चा इसके योग्य हो या नहीं और इसके लिए चाहे कितनी भी सिफारिश या पैसा क्यों न खर्च करना पड़े। जिन नेताओं को हम भ्रष्टाचार के लिए गाली देते हैं, उनके यहां ऐसे ही आम जनता के कितने सिफारिशी पत्र पड़े रहते हैं। वह आम आदमी जो प्रॉपर्टी आधा ब्लैक और आधा व्हाइट में खरीदता है, टैक्स, बिजली की चोरी करता है, वह आम आदमी जो ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने पर टीटीई को 100-200 रुपए पकड़ाकर यात्रा करने की कोशिश करता है, वह आम आदमी जो चाहता है कि विवेकानंद और गांधी दूसरे के घर में पैदा हों, उसके घर में नहीं। इस गैर जिम्मेदार आम आदमी को अन्ना के रूप में फिर एक गांधी मिल गया है। वह जानता है कि भ्रष्टाचार का यह आंदोलन उसके लिए काफी आसान है क्योंकि इसके लिए उसे कोई खास त्याग नहीं करना है, सिर्फ राष्ट्रीय झंडा लिए, गांधी टोपी लगाए जंतर-मंतर या रामलीला मैदान पहुंच जाना है।
आशुतोष अन्ना के आंदोलन में जुटने वाली फेसबुकिया पीढ़ी की भारी भीड़ से आह्लादित दिखते हैं, लेकिन उन्हें इस भीड़ की भी हिप्पोक्रेसी नजर नहीं आती। इस भीड़ में बहुत बड़ा वर्ग ऐसे युवाओं का भी था जो ‘मस्ती करने के लिए लोदी गार्डन, बुद्धा गार्डन, पुराना किला की जगह रामलीला मैदान पहुंच रहा था। ऑफिस से देर रात घर के लिए निकलते वक्त मैंने ऐसी ही एक अन्ना समर्थक को बर्कोज रेस्त्रां से लुढ़कते हुए बाहर निकलते देखा जिसे उसके दो साथी संभालकर ले जा रहे थे। इसमें कोई शक नहीं कि फेसबुकिया पीढ़ी ने ही मध्य एशिया के कई देशों में क्रांति की अलख जगाई है, लेकिन क्या भारत में यह युवा अपने आचरण में कोई बदलाव लाने को तैयार हैं? अन्ना के ‘अनुशासन पर्व में शामिल हुआ यह दिल्ली का वही युवा है जो मेट्रो में जरा सा धक्का लग जाने पर आसमान सिर पे उठा लेता है, यही नहीं सड़क पर चलती उसकी गाड़ी को अगर खरोंच भी लग जाए तो वह दूसरे गाड़ी चालक की हत्या तक कर डालता है। जन लोकपाल बन जाने से क्या युवाओं के इस चरित्र में भी कोई बदलाव आ पाएगा? अन्ना का आंदोलन इस तरह गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम से काफी पीछे रह जाता है। गांधी जी स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही व्यक्ति निर्माण, चरित्र निर्माण पर भी जोर देते थे। अन्ना अपने समर्थकों के सदाचारी होने की कमजोर सी अपील तो जरूर करते हैं, लेकिन यह कोई अभियान नहीं बन पाता। अन्ना अभियान का सारा जोर जन लोकपाल लाने और उसके द्वारा घूसखोरी पर अंकुश लगाने का है। आपने पढ़ा होगा कि गांधी जी ने किस तरह दंगो के समय अनशन कर एक जिद के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम सौहार्द बनाने में सफलता हासिल की थी। मौजूदा सांप्रदायिकता के लिए तो अन्ना का ऐसा तेवर कहीं भी नहीं दिखता है और दुख की बात यह है कि इस आंदोलन के लोग राजनीतिक नेताओं की तरह टोकनिज्म का सहारा लेते हैं, मंच पर मुस्लिम, दलित बच्चों को बैठा कर।
अन्ना का आंदोलन आम आदमी के भ्रष्ट आचरण में बदलाव का आंदोलन नहीं है। अन्ना के आंदोलन से व्यापारियों, उद्योगपतियों, स्वयं सेवी संस्थाओं, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों या समाज के अन्य वर्गों को भी कोई डर नहीं है क्योंकि जन लोकपाल से उन पर तो कोई अंकुश लगने वाला है। इस बारे में दो काल्पनिक दृश्य प्रस्तुत कर रहा हूं जिसे आप सच भी मान सकते हैं।
दृश्य 1ः
चांदनी चौक के व्यापारी गेंदामल फूड इंस्पेक्टर कीमत राय के भ्रष्टाचार से काफी परेशान हैं। गेंदामल की दुकान में काली मिर्च में पपीते का बीज, धनिया पाउडर में लकड़ी का बुरादा, चावल में कंकड़ और अन्य अन्य वस्तुओं में ना जाने किस-किस चीज की मिलावट होती है, लेकिन यह सब लोकपाल के दायरे में नहीं आता। गेंदामल फूड इंस्पेक्टर कीमत राय की काफी इज्जत करते हैं...हर महीने जब कीमत राय अपना हिस्सा (रिश्वत) लेने पहुंचते हैं तो वह अपने भाई से कहते हैं, ‘आ गया कुत्ता, भाई इसे हड्डी डाल दो। पिछले दिनों भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के आंदोलन शुरू होने पर गेंदामल की खुशी को कोई ठिकाना नहीं रहा, उन्हें लगा कि लोकपाल आने पर उन्हें ऐसे भ्रष्ट इंस्पेक्टर से मुक्ति मिल जाएगी। उन्होंने बढ़-चढ़कर इस आंदोलन मंें हिस्सा लिया। यही नहीं, रामलीला मैदान में आए लोगों को खाना खिलाने पर उन्होंने एक लाख रुपए खर्च कर डाले।
अन्ना टीम का जन लोकपाल फूड इंस्पेक्टर कीमत राय के घूस पर तो अंकुश लगाएगा, लेकिन गेंदामल के मिलावट पर नहीं क्योंकि यह कोई चारित्रिक शुद्धि का आंदोलन तो है नहीं।
दृश्य 2ः
एबीसीडी चैनल के रिपोर्टर कुलजीत सिंह के साथ मैं भी जंतर-मंतर पर जुटी भीड़ को देखकर आह्लादित हूं। रविवार का दिन है और शाम के 4.30 बज चुके हैं, मुझे अब ऑफिस जाकर डेस्क का काम संभालना है। कुलजीत से बताता हूं तो वह कहता है कि मैं भी चलता हूं तुम्हे रीगल तक छोड़ दूंगा, बस दो-चार ‘आम आदमी की बाइट ले लेता हंू। हम लोग भीड़ से बाहर निकलते हुए पीछे की तरफ जाते हैं। कुलजीत पहले एक पति-पत्नी का बाइट लेता है जो एक साथ एक अनूठा बैनर लिए घंटों से कुछ ‘अलग दिखने की कोशिश करते हुए खड़े हैं। इस बीच टीवी कैमरा देखकर बहुत से लोगों की भीड़ लग जाती है, सब अपना-अपना रिएक्शन देना चाहते हैं। कुलजीत को ऐसे दो-तीन बाइट ही चाहिए थे, लेकिन वह सोचता है चलो बाइट लेने में क्या जाता है और वह लोगों को खुश करने की कोशिश में करीब 20-25 मिनट तक आठ-दस लोगों की बाइट लेता है। इस बीच एक बूढ़े अन्ना समर्थक मेरा हाथ खींच-खींच कर बार-बार अपना बाइट लेने को कहते हैं। मैं कुलजीत को जल्दी खत्म करने को कहता हूं क्यांेकि मुझे ऑफिस पहुंचने की जल्दी है। कुलजीत भी खीज गया है, वह जल्दी निकलना चाहता है। वह बाइट लेना बंद करता है, लेकिन इस बीच वह बुजुर्ग सज्जन अपना बाइट देने के लिए झगड़ पड़ते हैं, हम वहां से तेजी से चल पड़ते हैं, लेकिन वह सज्जन हमारे पीछे लग जाते हैं और हम वहां से लगभग दौड़ते हुए गाड़ी तरफ बढ़ते हैं।
टीवी पर चेहरा दिखाने के लिए पागल ‘आम आदमी

आशुतोष को अन्ना आंदोलन के ये रंग नहीं दिखाई पड़ते। वह आंदोलन में जुटी भीड़ को देखकर पूरी तरह भावनाओं में बह जाते हैं क्योंकि यह भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए चलने वाला दूसरी आज़ादी का आंदोलन है। लेकिन खुद आशुतोष ने यह लिखा है कि आपातकाल के दौरान जेपी के आंदोलन को लेकर भाव प्रवण रिपोर्टिंग की गई थी, लेकिन बाद में उसके बारे में आकलन काफी बदल गया था। हमने यह देखा है कि वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान किस तरह से देश के युवाओं ने उन्हें ‘राजा नहीं फकीर है के नारे के साथ सिर आंखों पर बिठा लिया था और बाद में इस आंदोलन का क्या हश्र हुआ? पत्रकार को किसी आंदोलन की धारा में न बहते हुए उसकी जमीनी हकीकत से रूबरू कराना चाहिए और इस बात की दूरदर्शिता भी रखनी चाहिए कि आंदोलन कितना आगे बढ़ पाएगा। मैं यहां यह नहीं कह रहा कि अन्ना का वही हश्र होगा जो बाद में जेपी या वीपी सिंह के आंदोलन का हुआ, लेकिन मेरा यह जरूर मानना है कि अगर ऐसे आंदोलन की रिपोर्टिंग किसी खुमारी में न की जाए तो उसकी असली तस्वीर जनता के सामने आती है।
इन सबके बावजूद मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्ना का आंदोलन भारत में भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए शुरु हुआ अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन है। मैं आशुतोष की इस बात से सहमत हूूं कि सत्ता प्रतिष्ठान इस आंदोलन को तरह-तरह से बदनाम करने की कोशिश कर रहा है। मैं इस सरकारी कोरस का हिस्सा नहीं बनना चाहता, मैं तो एक अलग ही राग अलाप रहा हूं। मेरा तो बस इतना मानना है कि यह आंदोलन व्यापक नहीं है और इससे सैकड़ों साल की अवधि में हम सरकारी विभागों में घूसखोरी पर ही कुछ हद तक अंकुश लगा पाएंगे, समूचे तौर पर भ्रष्टाचार को खत्म करने में तो कई युग लग जाएंगे और अगर आम आदमी अपने आचरण में बदलाव नहीं लाता है तो शायद भ्रष्टाचार कभी खत्म न हो।